Monday 13 August 2007

चाहता हूँ

एक पथ पर रोज़ उठ कर बढ़ चलें कुछ तो क़दम,
मैं स्वयं की राख से फिर घर बनाना चाहता हूँ।
विश्व में नित बढ़ रही हैं क्रोध की चिंगारिया,
मैं इसी आवेश में, ख़ुद को जलाना चाहता हूँ।
खींच कर अब तो धारा को उच्चतम ऊँचाई तक,
मैं क्षितिज की सीमा रेखाएं मिटाना चाहता हूँ.
नैन से लुढ़के हुए दो, आंसुओं की धार को,
कंप-कंपाती उँगलियों से पोंछ लेना चाहता हूँ.
बाल पन की वो ढिठाई, और सबका रोकना,
मैं वही बागों के झूले झूल जाना चाहता हूँ.
प्रेम में तो कोई जीता और कोई रह गया,
मैं समय के बंधनों को तोड़ देना चाहता हूँ।
राह में जितने बिछे हैं कंटकित अवरोध जो
मैं उन्हें अपने सिरहाने, पर संजोना चाहता हूँ.
बन गए जो मेरे अपने एक मांझी की तरह
मैं उन्हीं की नाव की पतवार बनना चाहता हूँ...

Sunday 12 August 2007

कौन है ?

वो
कौन है ?
कभी साथ कभी अलग ,
समझ नहीं आता कि क्यों
वो इस तरह से
अजनबी की तरह
कुछ बता नही देती
क्या है ?
उसके मन में
जो बहार तो आता नहीं
पर अन्दर बहुत कुछ हलचल सी
छोड़ जाता है।
मैं इस इन्तजार में कि
वो कभी तो खुलेगी
अपनी वेदना के साथ
तब मैं जान सकूंगा कि
वो कौन है ?

Tuesday 7 August 2007

बिन्दु और रेखा....

मैं अगर बढ़ चला
एक रेखा की तरह,
क्योंकि तुम बिन्दु से
बन गए संबल मेरा.
तुम ने रुक कर मुझे
दी जाने की प्रेरणा,
क्योंकि तुम्हारी
स्थिरता थी सहारा मेरा.
तुम सिर्फ़ इसलिए ही
तो मात्र बिन्दु बने,
मैं हो सकूँ
उन्मुक्त रेखा की तरह.
बन गए ख़ुद नींव
का एक छुपा पत्थर,
मुझको तुमने ही तो
शिखर तक पहुँचाया.
पर क्या तुम ने
कभी सोचा ?
कि हर रेखा
का प्रारम्भ,
सदैव ही होता रहा है,
कहीं किसी एक चुप होते बिन्दु से ................
और बिना बिन्दु के आँचल के
रेखा को नहीं मिल पाता विश्राम ..

Sunday 5 August 2007

मेंहदी रचे हाथ....

ख़ुद खूब सोच लो अभी इल्जाम से पहले,  
कातिल नहीं हो सकते कभी मेंहदी रचे हाथ  
वो पहली बार हमसे छिपा रहे थे कोई शै,  
किए हाथ सामने तो दिखे मेंहदी रचे हाथ. 
लो ख़ुद ही देख लो यहाँ तुम अपने प्यार को,  
मुझको दिखा के कह गए वो मेंहदी रचे हाथ. 
मेरे प्यार की हिना तो खूब रंग लायी है, 
एहसास हुआ देख कर वो मेंहदी रचे हाथ. 
हम कबसे थे बेताब उसी प्यारी झलक के, 
मुझको वहां तक ले गए वो मेंहदी रचे हाथ. 
आपस में लड़ने वालों ज़रा तुम भी देख लो, 
हैं प्यार की बरसात से ये मेंहदी रचे हाथ.

क्या तुम साथ नहीं दोगी....?















आज चली फिर से पुरवाई , सावन की सुख देने वाली !
माँगा मैंने हाथ तुम्हारा , क्या तुम साथ नहीं दोगी ?

वर्षा की पड़ती फुहार है , मन तक भीगा जाता है !
भीगे मन से तुम्हें पुकारा , क्या तुम साथ सदा ?

कोयल की कूके गूंजी हैं, चातक रटता है निश दिन !
फिर से आया सावन प्यारा , क्या तुम साथ नहीं दोगी ?

लोट लोट कर उठते पौधे , और पुनः झुक जाते हैं !
मिलने की इस नव -बेला में , क्या तुम साथ नहीं दोगी ?

खेतों में लहराई सरसों वृक्ष लगे हैं स्वच्छ सलोने.!
बल खाती सुन्दर लातिकाएं , क्या तुम साथ नहीं दोगी ?

जिसका जीवन सदा समर्पित वो खुद क्यों रहता खाली
भरने की इस अभिलाषा में , क्या तुम साथ नहीं दोगी ?

टप टप गिरती बूँदें अनगिन , धरती तृप्त हुई जाती !
चंचल मन की पूर्ण तृप्ति में , क्या तुम साथ नहीं दोगी ?

इंतज़ार

इंतज़ार ही करना था तो कहा होता एक बार,
हम तो तुम्हारी राह में हर हद से गुज़र जाते.
कैसा लगा है तुमको कुछ इंतज़ार करके,
अपनी कटी है आज तक बस इंतज़ार में.
लग जाते चार चाँद हैं इस इंतज़ार में,
आते दिखाई देते हैं वो सामने से जब.
तुमने किया है एक बार इंतज़ार बस,
कहने लगे हैं जिंदगी को अब इंतज़ार हम.
आने वालों का तो होता है इंतज़ार बस,
हम उनकी राह में जो कभी भी न आयेंगें.
क्यों किसलिए किया था तुमने इंतज़ार कल,
उनकी निगाह झुकती गई पूछने पे यह.....






HAR EK SE BARH KAR WO JO MERE KHUDA HAIN..
KARTE RAHE EK SHAAM KO BAS MERA INTEZAAR.......

MAT POOCHHO KATI KAISE JUDAI KI RAAT WO,
SHAYAD MAIN JEE SAKUNGA AB INTEZAAR KARKE.

MIL BAHUT HAIN TUMSE, HAR ROZ TO MAGAR....
TUM BIN HAMEN JEENA KABHI ACHCHHA NAHIN LAGTA....

कारगिल के योद्धा.....

भारत माता मत कर चिंता शत्रु सदा से हैं पाखंडी
तेरे लाल सदा तत्पर हैं हंस कर शीश चढाने को 
बर्फीली चोटी पर उसने, छिप कर वार किया फिर से,  
शांत चित्त मन को उसने किया सशंकित है फिर से, 
श्वेत बर्फ को सिन्दूरी, चादर अब फिर से पहनाने को, 
तेरे लाल..... 
कायर बन कर आता है वो रिसता घाव छोड़ जाता 
सुखी हो चुके जीवन को वो फिर से विष करता जाता  
ऊंचे पर्वत पर गौरव गाथा को फिर से अब लिख जाने को 
तेरे लाल.... 
तेरा है आशीष अभी माँ उसको मार भगाया है 
बचे हुओं के जीवन पे अब निश्चित संकट आया है, 
उसके घर में घुस कर फिर से ध्वंस आज कर जाने को  
तेरे लाल... 
पहन के अब केसरिया बाना, निकली है अपनी टोली, 
धूर्त शत्रु के रुधिर से होगी अब फिर से प्रचंड होली 
कश्मीरी हर दिल पर अपने तीन रंग फहराने को 
तेरे लाल सदा तत्पर हैं हंस कर शीश चढाने को......

Friday 3 August 2007

कल हलकी हवा से ....















करते रहे मुकाबला , गिन गिन के तूफानों का ,
पुख्ता दरख्त टूट गए , कल हलकी हवा से !
बचता रहा जो आज तक , बरसात पत्थरों की से ,
वो आइना चकना -चूर हुआ , कल हलकी हवा से !!
शर्मा के झुक गई थी नज़र , उनकी एक बार ,
लहरा जो गया दामन , कल हलकी हवा से !!!
उस शाख पे किसीका था , मज़बूत आशियाना ,
जो आ गया ज़मीन पे , कल हलकी हवा से !!!!
मज़बूत सफीने के जो , अब तक थे ना -खुदा ,
बहते हुए दिखे थे वो , कल हलकी हवा से !!!!!
उसका मेरे मरासिम , वैसे तो था पुराना ,
खिंचता पड़ा दिखाई वो , कल हलकी हवा से !!!!!!