Saturday 20 December 2008

चैन

आज कुछ मन उदास सा है 
कुछ करने की इच्छा 
या आकांक्षा भी तो नहीं.
बस याद करने को  
दिल करता है 
उन शहीदों को 
जिनका बलिदान हमें  
चैन से सोने देता है.

Sunday 7 December 2008

मिलकर धावा बोलो अब ....

भारत माँ का आँचल छलनी, 
बनके दर्शक देखो मत,
प्रेम-गीत को पीछे छोड़ो, 
मिलकर धावा बोलो अब. 
लुधियाना अजमेर श्री नगर
बढती जाती संख्या है  
अधिकारी पड़ोस को कोसें 
पहने हाथ चूडियाँ हैं, 
जो तारें पड़ोस में जाए उनको मिलकर नोचो सब, 
प्रेमगीत को......... 
हमें शान्ति है अच्छी लगती  
उनको समझ नहीं आती, 
आपस में लड़ने वालों को 
बुद्धि कभी नहीं आती, 
उनकी नादानी के मटके उनके सर पर फोड़ो अब,
प्रेम-गीत को........ 
भाई-चारे के चारे में 
नेता फंसते जाते हैं, 
और धमाके वो आतंकी 
यहाँ वहां कर जाते हैं, 
हाथ बढा कर आगे बढ़ कर उनके गर्दन तोड़ो अब,
प्रेम-गीत को..... 
हो सतर्क अब सबकी आँखें और दिमाग़ बहुत चौकन्ना 
युवा बढ़ चलें आगे आयें 
चौड़ी छाती चौड़ा सीना  
माँ की करुण पुकार सुनो तो शत्रु पे चढ़ जाओ तुम 
प्रेम-गीत को पीछे छोड़ो मिलकर धावा बोलो अब..............

यह कविता पिछले वर्ष के आतंकी धमाकों के बाद लिखी थी बस केवल शहरों के नाम बदल रहे हैं और हम आज भी खून को धोने में ही लगे हैं....

Friday 5 December 2008

टालाकमान.......

देश जब फंसा है 
दुविधा में,
आम जन-मानस  
त्रस्त है, 
आतंक के ख़ूनी खेल से, 
मुंबई की नेता नगरी फँसी है 
कुर्सी की रेलमपेल में. 
शर्म तो आती नहीं इन्हें 
क्योंकि ये नेता हैं 
और नेता होने का पहला गुण 
तो बेशर्मी से ही निखरता है. 
देश ने फिर से एक मुख्यमंत्री बदला इस बार भी बात गई तो  
आलाकमान तक  
पर वहां से भी नहीं हुआ  
और वह बन गया 
टालाकमान.....

Tuesday 2 December 2008

मुंबई मेरी जान

फिर से वही पागलपन,
फिर से वही वहशीपन , किसी को क्या मिला 
इतनों को मौत देकर ? 
क्यों नहीं हम हो जाते
एक साथ कदम मिला 
तोड़ देने गुरूर
उस विचारधारा का
जो हमेशा से ही रही है 
मानवता के विरुद्ध 
अब तो मत सोओ 
जागो जागो जागो 
भारत अब तो जागो 
निश्चय करो कि
अब नहीं बहने देंगें 
इस तरह से किसी 
अपने का लहू को 
आंखों में चिंगारी जलाओ
सीने में ज्वालामुखी दहकाओ 
कुछ भी करो पर 
आँखें बंद कर 
शुतुरमुर्ग तो न बनो 
कि आज अगर ये आंच कहीं दूर है  
तो कल को पास भी आ सकती है 
मत छेड़ो किसी को अकारण 
मत छोडो अकारण छेड़ने वाले को 
मुंबई केवल शहर नहीं  
हमारी धड़कन है 
और धड़कन रुकनी नहीं चाहिए...... 

Monday 24 November 2008

खुला था.....

मैं उलझा था, 
मैं बिखरा था,
जब भी मैंने ख़ुद को ढाँपा,
मेरा घाव खुला था.
मैं आया था,
मैं जाऊँगा,
जीवन भर मैंने खेला जो,
मेरा दांव खुला था.
मैं प्रेमी था,
उसको चाहा,
मेरी चाह हुई जब ज़ाहिर,
मेरा भाव खुला था.
वो दामन था,
कितना शीतल ?
वो फैला तो मैं जलता था,
उसका छाँव खुला था.
मैं भूला था,
अपना रस्ता,
उसको याद किया जब मैंने,
उसका ठांव खुला था.
अपना घर,
जब मैंने छोड़ा,
और चला फिर उसे ढूंढते
उसका गाँव खुला था........

Friday 21 November 2008

तुम सिर्फ तुम

तुम,
सदैव से ही
तो रही हो
मेरा संबल,
क्या कुछ नहीं
पाया मैंने
सिर्फ और
सदैव तुमसे.
हर बार दुःख के
अश्रुबिंदु, 
तुम्हारी प्रेरणा से बने 
सुख के श्रमबिंदु. 
विषमता की तपती 
रेत पर, 
तुम्हारे अपनत्व की 
ठंडी फुहार.  
हर एक हार को 
जिंदगी में, 
तुम्हारी दृष्टि ने बदला 
जीत में. 
किसी के भी प्रति 
द्वेष को, 
तुमने ही तो बदला
प्रीत में. 
अकेलेपन की धूप
के तीखेपन में,
तुमने ही तो छाँव दी
वट बनकर.
कहीं किसी भंवर में
डूब न जाऊं, 
तुम मांझी बनकर
सदैव मिले.
हर छोटी उपलब्धि 
जो मेरी होती, 
तुम्हारे फैलाव में
विराट हो जाती. 
भीड़ में मेरे खो जाने
पर भी
तुम्हारे हाथ ने थामकर 
निकाला मुझे 
आज भी लगता है जैसे
कि तुम हो 
अपनी चिर-परिचित
व्यवस्था में 
क्योंकि तभी तो
आज भी केवल 
तुम ही तो हो
मेरा संबल..

Monday 10 November 2008

वो औरत

बाध बटती
वो औरत
कभी घास को पीटती
कभी भिगोती,
माथे पर आए श्रम बिन्दुओं
को पोंछती.
उसके छोटे बच्चों कि
कुछ अधिक संख्या
जो उसके काम को
कुछ हल्का करती
चरखे से घास को
कातती
एक नया आयाम और
संदेश देती.
कि मिलकर रहे तो
एक दूसरे का संबल
बिखरे तो
तिनके की तरह केवल.
बच्चे को दुलराती
बड़ी बेटी कि गोद में
छोटे बेटे को
देख मुस्काती
बड़े बेटे को व्यापार का
अर्थशास्त्र समझाती
बटी हुई बाध बेचने
का गुर सिखाती
शाम को अपने
परिवार के लिए चार पैसे
भले ही मिले हों
वे इतनी मेहनत से
वह नहीं जानती कि
उसके इतने बच्चे
उसकी समस्या हैं या कि
उसकी आर्थिक तंगी
मिटाने का समाधान
फिर भी तो रोज़ ही
वो औरत
बाध बटती......