फिर से आता
राखी का त्यौहार
उसकी तो सोच ही
बदल जाती ।
कुछ समझ नहीं पाता
कि कैसे समझाए
अपनी बहन को जो
फिर से करेगी इंतज़ार
उसकी कलाई का
बुनेगी सपने अरसे बाद राखी बाँधने के॥
जब भी देखता है वह अपनी
बचत को जो बहुत कम है
सोच लेता है कि कह दूँगा
मिल पा रही है अभी छुट्टी नहीं
फिर कोशिश करूंगा.......
आख़िर पिछले कई सालों से
यही झूठ बोलकर ही तो
समझाता रहा हूँ उसे
और रोता रहा हूँ
बहुत देर तक उससे बात करने के बाद....
क्या इसी को कहते हैं
मजबूरी ?
1 comment:
बहुत दर्दीली कविता ....
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