Saturday 29 December 2012

चुप ही रहूँ ....

तेरा ये चुभन भरा बलिदान,
आज छलनी कर रहा है स्वाभिमान
किसी और लोक में बसी तू,
चुप रहकर भी रुला रही है ......
किस तरह सांत्वना को समेटूं
किस तरह जवाब दूं उन
घुटी हुई चीखों का
जो दफ़्न हो गयीं
तेरे अधूरे सपनों की तरह ?
बोलना तो है पर
लगता है खिंच गयी ज़बान मेरी ...
तेरे उन सवालों के जवाब
पुरुष मानसिकता में खोजने में
जो आज भी उतने ही अधूरे हैं
बिलकुल तेरे सपनों की तरह .....
जो केवल मन के कैनवास
पर उड़ते थे उन सावन के
बिंदास बादलों की तरह
जिन्हें क़ैद कर दिया किसी ने
पूस की सन्नाटे भरी रात में .....
तू बन गई एक प्रतिमूर्ति
पुरुष के खोखले दिखावे भरे प्रतीकों
से उलझ जाने में ...
थम सी रही है आज फिर से कलम
उस स्याह रात की याद में
सूखी हुई स्याही से क्या लिखा जाए
दिल की मासूम परत पर
चलो फिर से कोई नश्तर चलाकर
सुर्ख पर सर्द हुए
तेरे उस खूं की कसम
गर्म अब खून हमारा भी
रहेगा बरसों ......

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