सदैव से ही
तो रही हो
मेरा संबल,
क्या कुछ नहीं
पाया मैंने
सिर्फ और
सदैव तुमसे.
हर बार दुःख के
अश्रुबिंदु,
तुम्हारी प्रेरणा से बने
सुख के श्रमबिंदु.
विषमता की तपती
रेत पर,
तुम्हारे अपनत्व की
ठंडी फुहार.
हर एक हार को
जिंदगी में,
तुम्हारी दृष्टि ने बदला
जीत में.
किसी के भी प्रति
द्वेष को,
तुमने ही तो बदला
प्रीत में.
अकेलेपन की धूप
के तीखेपन में,
तुमने ही तो छाँव दी
वट बनकर.
कहीं किसी भंवर में
डूब न जाऊं,
तुम मांझी बनकर
सदैव मिले.
हर छोटी उपलब्धि
जो मेरी होती,
तुम्हारे फैलाव में
विराट हो जाती.
भीड़ में मेरे खो जाने
पर भी
तुम्हारे हाथ ने थामकर
निकाला मुझे
आज भी लगता है जैसे
कि तुम हो
अपनी चिर-परिचित
व्यवस्था में
क्योंकि तभी तो
आज भी केवल
तुम ही तो हो
मेरा संबल..
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