Monday, 24 November 2008

खुला था.....

मैं उलझा था, 
मैं बिखरा था,
जब भी मैंने ख़ुद को ढाँपा,
मेरा घाव खुला था.
मैं आया था,
मैं जाऊँगा,
जीवन भर मैंने खेला जो,
मेरा दांव खुला था.
मैं प्रेमी था,
उसको चाहा,
मेरी चाह हुई जब ज़ाहिर,
मेरा भाव खुला था.
वो दामन था,
कितना शीतल ?
वो फैला तो मैं जलता था,
उसका छाँव खुला था.
मैं भूला था,
अपना रस्ता,
उसको याद किया जब मैंने,
उसका ठांव खुला था.
अपना घर,
जब मैंने छोड़ा,
और चला फिर उसे ढूंढते
उसका गाँव खुला था........

Friday, 21 November 2008

तुम सिर्फ तुम

तुम,
सदैव से ही
तो रही हो
मेरा संबल,
क्या कुछ नहीं
पाया मैंने
सिर्फ और
सदैव तुमसे.
हर बार दुःख के
अश्रुबिंदु, 
तुम्हारी प्रेरणा से बने 
सुख के श्रमबिंदु. 
विषमता की तपती 
रेत पर, 
तुम्हारे अपनत्व की 
ठंडी फुहार.  
हर एक हार को 
जिंदगी में, 
तुम्हारी दृष्टि ने बदला 
जीत में. 
किसी के भी प्रति 
द्वेष को, 
तुमने ही तो बदला
प्रीत में. 
अकेलेपन की धूप
के तीखेपन में,
तुमने ही तो छाँव दी
वट बनकर.
कहीं किसी भंवर में
डूब न जाऊं, 
तुम मांझी बनकर
सदैव मिले.
हर छोटी उपलब्धि 
जो मेरी होती, 
तुम्हारे फैलाव में
विराट हो जाती. 
भीड़ में मेरे खो जाने
पर भी
तुम्हारे हाथ ने थामकर 
निकाला मुझे 
आज भी लगता है जैसे
कि तुम हो 
अपनी चिर-परिचित
व्यवस्था में 
क्योंकि तभी तो
आज भी केवल 
तुम ही तो हो
मेरा संबल..

Monday, 10 November 2008

वो औरत

बाध बटती
वो औरत
कभी घास को पीटती
कभी भिगोती,
माथे पर आए श्रम बिन्दुओं
को पोंछती.
उसके छोटे बच्चों कि
कुछ अधिक संख्या
जो उसके काम को
कुछ हल्का करती
चरखे से घास को
कातती
एक नया आयाम और
संदेश देती.
कि मिलकर रहे तो
एक दूसरे का संबल
बिखरे तो
तिनके की तरह केवल.
बच्चे को दुलराती
बड़ी बेटी कि गोद में
छोटे बेटे को
देख मुस्काती
बड़े बेटे को व्यापार का
अर्थशास्त्र समझाती
बटी हुई बाध बेचने
का गुर सिखाती
शाम को अपने
परिवार के लिए चार पैसे
भले ही मिले हों
वे इतनी मेहनत से
वह नहीं जानती कि
उसके इतने बच्चे
उसकी समस्या हैं या कि
उसकी आर्थिक तंगी
मिटाने का समाधान
फिर भी तो रोज़ ही
वो औरत
बाध बटती......

Thursday, 6 December 2007

टीस




जब विचार मन में हों उलझे,
और बुद्धि को भ्रम भारी,
मिलती नहीं राह जब कोई,
बढ़ती जाती फिर लाचारी,
आगे बढ़ने के प्रयास में,
ठोकर पल-पल लगती है,
मुझसे मत पूछो तुम आकर,
टीस मुझे क्यों उठती है ?
है उदार अब अर्थ-नीति,
हम स्वागत में लगते बिछने,
पूंजी के बढ़ते प्रवाह में,
लगे आंकड़े स्वच्छ सलोने
घटती मुद्रा की स्फीति,
भूख कुलांचे भरती है
मुझसे मत पूछो तुम आकर,
टीस मुझे क्यों उठती है ?
ठेके वाले और अधिकारी-नेता,
का गठजोड़ बना है
कर चोरों की मौज हुई,
और आम आदमी अदना है,
तीन महीने मात्र पुरानी,
सड़क उधड़ने लगती है
मुझसे मत पूछो तुम आकर,
टीस मुझे क्यों उठती है ?
नई सदी में क्या कुछ सीखा,
कैसे कहें और कितना ?
शिक्षा के ऊँचे आयाम में,
हम तो गिर गये हैं इतना,
महिलाओं की ध्वनियां भी,
जब और सिसकने लगती हैं
मुझसे मत पूछो तुम आकर,
टीस मुझे क्यों उठती है ?
बम विस्फोटों से मरते हैं,
कौन कहीं कब रोता है ?
मेरा मन जब ख़ून के धब्बे,
फिर आंसू से धोता है
राष्ट्रवाद की होली जब भी,
"मत" की आग में जलती है
मुझसे मत पूछो तुम आकर,
टीस मुझे क्यों उठती है ?
भगत, सुभाष, राजगुरु, बिस्मिल,
और नरेन्द्र की थाती हैं
गांधी, नेहरू और बल्लभ की,
फिर से आई पाती है
युवा शक्ति जब देश भूलकर,
बस ज़ुल्फों में फंसती है
मुझसे मत पूछो तुम आकर
टीस मुझे क्यों उठती है ?

Sunday, 2 December 2007

आंसू

अंतहीन सिलसिला
आंसुओं का
किसी की समझ में
क्या कभी आया ?
प्रिय के बिछुड़ने से
या मिलने में ।
उम्मीद के बंधने से
या टूटने में
जिंदगी में हारने से
या जीतने में
सपनों के बिखरने
या संवरने में
सब कुछ खोने
या थोडा सा पाने में
विषमता की धूप से
या समता की फुहार में
ठेठ मनोविज्ञान से
या क्रिया विज्ञान में
बाँहों में असमान से
या खिसकती ज़मीन में
क्यों ?
आखिर क्यों
मुखर हो उठता है
किसी की समझ
नहीं आता कि
कहाँ से कब
और कैसे
प्रारंभ होता है
आंसुओं का
अंतहीन सिलसिला

Sunday, 28 October 2007

आओ ये भी देखे हम.....

आज़ादी के साठ बरस में, 
आओ ये भी देखें हम, 
कौन मरा है कौन बचा है, 
आओ ये भी देखें हम. 
शिव-भक्तों ने किया तांडव, 
शबे-रात का मंज़र वो, 
आने-जाने वाले पिटते, 
आओ ये भी देखें हम. 
मनमोहन जब ज़ोर से बोले, 
हाइड सारा फूट गया, 
अब प्रकाश भी करें अँधेरा, 
आओ ये भी देखे हम. 
बेटे पोतों की नादानी, 
किसकी करनी किसको फल ? 
दादा ड्राप पियें हज जायें, 
आओ ये भी देखें हम. 
बम विस्फोटों से दहला है, 
सारे भारत का तन-मन, 
सोता नेताओं का पौरुष, 
आओ ये भी देखें हम. 
राम सेतु पर नेता लड़ते, 
अर्थ, धर्म पर भरी है. 
अपनी संस्कृति ख़ुद ही खोदें, 
आओ ये भी देखें हम. 
घटती मुद्रा की स्फीति, 
मंहगाई भी ऊपर जाए  
बना कचूमर 'आम-आदमी', 
आओ ये भी देखें हम. 
कल तक जो गाली देते थे, 
आज साथ में आए हैं, 
है समाज अब समता मूलक, 
आओ ये भी देखें हम.

थकान

क्यों होगी थकान अब मुझको ,
जीवन ही संगीत बन गया ।
कविता फिर से प्रेम रूप में ,
आई इस एकाकी मन में !!!
नींद खुली तो वंशी की धुन ,
पीत सांझ की मिलती लय में ।
ढलती हैं सूरज की किरने
फिर से उगने के प्रण में !!!
वन-पथ की उदास रातें हैं ,
छाया की फिर से तलाश है ।
चन्दन वन की चंद सुगंधें ,
महक रही हैं अब तन में !!!
पंछी रात समझ घर आये ,
सकुचाये स्वर फिर मुस्काये ।
दिल तो याद किया करता है ,
स्वप्न पुराने ले आंखों में !!!
आंसू सूख बन गए मोती ,
भरी नींद में खुली पलक पर ।
पूजन की ध्वनि पुनः सुनी है ,
दो झाँझर से एक धुन में !!!!