Wednesday, 1 July 2009

चाह...

क्या है
अनंत पार जिससे जाना हो
क्या है
अपार समेट जिसे लाना हो
क्या है
अखंड जोड़ जिसे देना हो
खोल के
मन की ग्रंथि...
जब देखा तो
चाह के आगे
अनचाही प्यास ...
फिर से,
चरी हुई दूब की
तरह जीने
का प्रयास करती
प्रकाश के पंख
पर चढ़
फिर से
चरे जाने के इंतज़ार में..........

5 comments:

Ankit khare said...

एक मशहूर शेर है आपने जरूर सुना होगा ...

आदमी की आरजू की इंतिहा नहीं
दो गज़ ज़मी भी चाहिए दो गज़ कफ़न के बाद ...

या एक मशहूर कविता की पंक्तियाँ याद आती हैं ...
चाह नहीं है सुरबाला के गहनों में गूथा जाऊ
चाह नहीं प्रेमी माला में बिंध प्यारी को ललचाऊ
चाह नहीं सम्राटो के शव पे हे हरि डाला जाऊ
चाह नहीं देवो के सर पर चढू भाग्य को इठलाऊँ

मुझे तोड़ लेना बन माली उस पथ पर तुम देना फ़ेंक
मातृभूमि पर शीश चढाने जिस पथ जायें वीर अनेक ........

चाह क्या है ....

प्यास के आगे एक और प्यास
चारी हुई दूब का पुनः जीने का प्रयास

एक अलग दिशा में नयी सोंच के अवसर प्रदान करती कविता का स्वागत है ....

Ankit khare

Anonymous said...

Ek atrapt pyas......!!!!
(Radio nawab)

deepak said...

keh diya tha unse ki teri chah nahi hai hamko
sach bataye bilkul juth kaha tha

Aapki kavita hamare jajbaat jagati hai
Likhte rahiye

Dr Deepak Dhama
Khekra Baghpat-NCR

रज़िया "राज़" said...

वाह! आपकी रचना मेरे ब्लोग पर :कारवाँ" से बिल्कुल मिलती ज़ुलती है।

मेरे पंख मुज़से न छीनलो,
मुझे आसमॉ की तलाश है।
मैं हवा हूँ मुझको न बॉधलो ,
मुझे ये समॉ की तलाश है।
मुझे मालोज़र की ज़रुर क्या?
मुझे तख़्तो-ताज न चाहिये !
जो जगह पे मुज़को सुक़ुं मिले,
मुझे वो जहाँ की तलाश है।
मैं तो फ़ुल हूं एक बाग़ का।
मुझे शाख़ पे बस छोड दो।
में खिला अभी-अभी तो हूं।
मुझे ग़ुलसीतॉ की तलाश है।
न हो भेद भाषा या धर्म के।
न हो ऊंच-नीच या करम के।
जो समझ सके मेरे शब्द को।
वही हम-ज़बॉ की तलाश है।
जो अमन का हो, जो हो चैन का।
जहॉ राग_द्वेष,द्रुणा न हो।
पैगाम दे हमें प्यार का ।
वही कारवॉ की तलाश है।
http://razia786.wordpress.com

दिगम्बर नासवा said...

ये pyaas ही तो जीवन है............. jeene को saarthak करती लाजवाब रचना है