Sunday, 5 August 2007

क्या तुम साथ नहीं दोगी....?















आज चली फिर से पुरवाई , सावन की सुख देने वाली !
माँगा मैंने हाथ तुम्हारा , क्या तुम साथ नहीं दोगी ?

वर्षा की पड़ती फुहार है , मन तक भीगा जाता है !
भीगे मन से तुम्हें पुकारा , क्या तुम साथ सदा ?

कोयल की कूके गूंजी हैं, चातक रटता है निश दिन !
फिर से आया सावन प्यारा , क्या तुम साथ नहीं दोगी ?

लोट लोट कर उठते पौधे , और पुनः झुक जाते हैं !
मिलने की इस नव -बेला में , क्या तुम साथ नहीं दोगी ?

खेतों में लहराई सरसों वृक्ष लगे हैं स्वच्छ सलोने.!
बल खाती सुन्दर लातिकाएं , क्या तुम साथ नहीं दोगी ?

जिसका जीवन सदा समर्पित वो खुद क्यों रहता खाली
भरने की इस अभिलाषा में , क्या तुम साथ नहीं दोगी ?

टप टप गिरती बूँदें अनगिन , धरती तृप्त हुई जाती !
चंचल मन की पूर्ण तृप्ति में , क्या तुम साथ नहीं दोगी ?

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